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Friday, 25 March 2016

OxyMoronic Existence

I randomly came across a set of oxymoronic prose of shakespeare.
One case where many oxymorons are strung together can be found in Shakespeare's Romeo and Juliet, where Romeo declares:
O heavy lightness! Serious vanity!
Mis-shapen chaos of well-seeming forms!
Feather of lead, bright smoke, cold fire, sick health!



What it makes MEEE feel--

Here it Goes-

This makes me think of Life which itself has its oxymoronic occurences.
What looks like a failure today gives way to success in the future.You may fall flat on ur face confronting chaotic situations.But then there comes peace in Chaos(#Oxymoron)

This peace which is just a beginning arises a pattern .Then we start making amendments in our life so that we can convert the chaos in to a set of new normal.So the abnormal becomes normal(Next OXymoron).

See the analogy.This can go on. The set of Oxymorons defining the life when the one fine day you become wise enough to see the past life as only various cogs in the bigger wheel as manufactured by a super power mastermind.

Then comes the final oxymoron ; Your existence slowly slowly makes way to your non existence and the Life meets its counterpart i.e Death only to start the new journey again in some new Universe new energy, new avatar.(Taking the liberty of being Abstract cosmologist :P)

-aBy

Wednesday, 23 March 2016

यहां तो बस इंसान ही इंसान बनते हैं (#Poetry Series)

१.
पल  पल  तरसे  थे  उस  पल  के  लिए ,
मगर  यह  पल  आया  भी  तो  कुछ  पल  के  लिए  ,
सोचा  था  उसे  ज़िन्दगी  का  एक  हसीं  पल  बना  लेंगे  ,
पर  वो  पल  रुका  भी  तो  बस  एक  पल  के  लिए


२.
हर  पल  पे  तेरा   ही  नाम  होगा ,
तेरे  हर  कदम  पे  दुनिआ  का  सलाम  होगा
मुशिकिलो  का  सामना  हिम्मत  से  करना ,
देखना  एक  दिन  वक़्त  भी  तेरा  गुलाम  होगा



३.
कहीं   पर  धरम  बनते  हैं , कहीं  पर  इमां  बनते  हैं ,
कहीं  पर  हिन्दू ,सिख ,ईसाई 
तो  कहीं  मुसलमान  बनते  हैं ,
हमारी  महफ़िल  मैं  आकर  देख  ऐ  "साकी " 
यहां तो बस  इंसान  ही  इंसान बनते  हैं .


४.
नज़र  को  बदलो  तो  नज़ारे  बदल  जाते  है ,
सोच  को  बदलो  तो  सितारे  बदल  जाते  है ,
कश्तियाँ  बदलने  की  जरुरत  नहीं ,
दिशा  को  बदलो  तो  किनारे   बदल  जाते  है .


५ .
शाम  सूरज  को   ढालना  सिखाती   है ,
शमा  परवाने  को  जलना  सिखाती  है

गिरने  वाले  को  होती  तो  है  तकलीफ ,
पर  ठोकर  इंसान  को  चलना  सिखाती  है



पूरा आस्मां अभी बाकी है . (Motivational Poetry Series)

ज़िन्दगी की असली उड़ान अभी बाकी है
हमारे इरादो का इम्तिहान अभी बाकी है.

अभी तो नापी है कुछ मुट्ठी भर ज़मीन
सामने पूरा आस्मां अभी बाकी है . 

Saturday, 19 March 2016

Aarambh Hai Prachand(#Motivational Poetry Series)


खूनी हस्‍ताक्षर ( Khooni Hastakshar) - गोपालप्रसाद व्यास (Gopalprasad Vyas) (Motivational Poetry Series)




वह खून कहो किस मतलब का

जिसमें उबाल का नाम नहीं।
वह खून कहो किस मतलब का
आ सके देश के काम नहीं।

वह खून कहो किस मतलब का
जिसमें जीवन, न रवानी है!
जो परवश होकर बहता है,
वह खून नहीं, पानी है!

उस दिन लोगों ने सही-सही
खून की कीमत पहचानी थी।
जिस दिन सुभाष ने बर्मा में
मॉंगी उनसे कुरबानी थी।

बोले, "स्वतंत्रता की खातिर
बलिदान तुम्हें करना होगा।
तुम बहुत जी चुके जग में,
लेकिन आगे मरना होगा।

आज़ादी के चरणें में जो,
जयमाल चढ़ाई जाएगी।
वह सुनो, तुम्हारे शीशों के
फूलों से गूँथी जाएगी।

आजादी का संग्राम कहीं
पैसे पर खेला जाता है?
यह शीश कटाने का सौदा
नंगे सर झेला जाता है"

यूँ कहते-कहते वक्ता की
आंखों में खून उतर आया!
मुख रक्त-वर्ण हो दमक उठा
दमकी उनकी रक्तिम काया!

आजानु-बाहु ऊँची करके,
वे बोले, "रक्त मुझे देना।
इसके बदले भारत की
आज़ादी तुम मुझसे लेना।"

हो गई सभा में उथल-पुथल,
सीने में दिल न समाते थे।
स्वर इनकलाब के नारों के
कोसों तक छाए जाते थे।

“हम देंगे-देंगे खून”
शब्द बस यही सुनाई देते थे।
रण में जाने को युवक खड़े
तैयार दिखाई देते थे।

बोले सुभाष, "इस तरह नहीं,
बातों से मतलब सरता है।
लो, यह कागज़, है कौन यहॉं
आकर हस्ताक्षर करता है?

इसको भरनेवाले जन को
सर्वस्व-समर्पण काना है।
अपना तन-मन-धन-जन-जीवन
माता को अर्पण करना है।

पर यह साधारण पत्र नहीं,
आज़ादी का परवाना है।
इस पर तुमको अपने तन का
कुछ उज्जवल रक्त गिराना है!

वह आगे आए जिसके तन में
खून भारतीय बहता हो।
वह आगे आए जो अपने को
हिंदुस्तानी कहता हो!

वह आगे आए, जो इस पर
खूनी हस्ताक्षर करता हो!
मैं कफ़न बढ़ाता हूँ, आए
जो इसको हँसकर लेता हो!"

सारी जनता हुंकार उठी-
हम आते हैं, हम आते हैं!
माता के चरणों में यह लो,
हम अपना रक्त चढाते हैं!

साहस से बढ़े युबक उस दिन,
देखा, बढ़ते ही आते थे!
चाकू-छुरी कटारियों से,
वे अपना रक्त गिराते थे!

फिर उस रक्त की स्याही में,
वे अपनी कलम डुबाते थे!
आज़ादी के परवाने पर
हस्ताक्षर करते जाते थे!

उस दिन तारों ने देखा था
हिंदुस्तानी विश्वास नया।
जब लिक्खा महा रणवीरों ने
ख़ूँ से अपना इतिहास नया।

Sinhasan khali karo ki janta aati hai (Jantantra ka Janm--Ramdhari singh Dinkar)

Koshis karne walo ki haar nahi hoti #Motivational Poetry (Series...)

लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।

नन्हीं चींटी जब दाना लेकर चलती है,
चढ़ती दीवारों पर, सौ बार फिसलती है।
मन का विश्वास रगों में साहस भरता है,
चढ़कर गिरना, गिरकर चढ़ना न अखरता है।
आख़िर उसकी मेहनत बेकार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।

डुबकियां सिंधु में गोताखोर लगाता है,
जा जा कर खाली हाथ लौटकर आता है।
मिलते नहीं सहज ही मोती गहरे पानी में,
बढ़ता दुगना उत्साह इसी हैरानी में।
मुट्ठी उसकी खाली हर बार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।

असफलता एक चुनौती है, इसे स्वीकार करो,
क्या कमी रह गई, देखो और सुधार करो।
जब तक न सफल हो, नींद चैन को त्यागो तुम,
संघर्ष का मैदान छोड़ कर मत भागो तुम।
कुछ किये बिना ही जय जय कार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।

--हरिवंशराय बच्चन